शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

नकाब के पीछे

नकाब की प्रथा सदियों पुरानी हैं , लोग , भूगौलिक स्थितियो , धार्मिक , सामाजिक परम्पराओं के चलते नकाब का प्रयोग करते आए हैं जमाने मे आए बदलाव के साथ ही अनेक उन्नत समझे जाने वाले समाज ने हर तरह के गैरजरूरी छिपाव को पूरी तरह से खारिज भी कर दिया हैं ." प्रत्यक्षतया नकाब एक ऐसी ओट हैं , जो न केवल चेहरा छुपाने के साथ ही पूरी की पूरी भावभंगिमा भी छुपाता हैं " और यह गुण राजनीति के अनुकूल हैं । और राजनैतिक - दुनिया ऐसी हैं , जहा हर वक्त , जरुरत बिना जरुरत पर्देदारी एक जन्मजात स्वाभाविक आदत हैं , जिसे न तो राजतंत्र मे न लोकतंत्र मे किसी ने बदलने की जरुरत समझी न कोई इस्तेमाल से परहेज ही किया . पारदर्शिता का डंका चाहे जितनी जोर से बजाया जाए , मुखौटो को उतारने की कभी कोई पहल नही की गयी ।
जबकि राजनीति मे सब कुछ् इतना बदसूरत भी नही होता हैं कि , उसे दिखाने मे संकोच हो और हर चीज इतनी ख़ूबसूरत भी नही हैं कि , नजर लगाने का खतरा हो , और इससे भी ज्यादा बड़ी बात यह है कि , सार्वजनिक - जीवन तो सीधे जनता से जुड़ा मसला होता हैं जहा छुपाने से ज्यादा दिखाना फायदेमंद होता हैं .पर इन सबके बाबजूद भी , राजनीति को बेनकाब होने से सख्त एतराज हैं .क्योकि ,जब -जब सियासी तूफ़ान के चलते , राजनीति के चेहरे से नकाब उठा हैं , सियासी हलको मे क़यामत बरपा हुई हैं . जरुरत से ज्यादा छुपाव ,और एक बेहद सीधे - साधे काम के लिए भी बिना किसी जरुरत के आदतन आड़े - तिरछे रास्तो पर चलना राजनीति का शगल हैं . और यहाँ "आ बैल मुझे मार " वाली कहावत खरी उतरती हैं .
राजनीति हमेशा नकाब मे रहना इसलिए पसंद करती हैं कि ,राजनैतिक मुखौटा या मुखौटो की राजनीति दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । मुखौटा राजनीति और राजनेता को और राजनीति मुखौटो को बचाता हैं , वक्त जरुरत के हिसाब से दोनों की अपनी - अपनी भुमिका तय हैं । राजनीति का सत्य हमेशा दो पक्तियों के बीच छिपी पक्ति मे निहित होता हैं , राजनीति के गूढ़ - "रहस्य के सूत्र " - बाए हाथ को न मालूम हो पाये कि दाहिना हाथ क्या कर रहा हैं ? या अपने मन की बात अपने साये तक से छुपा कर रखो जैसे कठोर एव सवेदनहीन वाक्य हैं .और नकाब हमेशा , राजनैतिक कलाबाजियों और राजनैतिक - गुथियो की परदेदारी के काम आता हैं । एक तरह से नकाब , सियासी गन्दगी का , पहरेदार हैं ।
मानव के लिए धर्मं के विकल्प हैं , जिस विधि को चाहे अपना ले , किंतु राजनैतिक धर्म -सूत्र का कोई विकल्प नही हैं चाहे वह कथित " मूल्य आधारित राजनीति हो अथवा मूल्यविहीन राजनीति हो " नैतिक या अनैतिक जैसी राजनीति हो , दोनों की कार्यशैली नकाबो की हैं । राजनीति की असलियत अगर परदे के बाहर आ गयी तो सियासत का हाल बिना पानी के मछली जैसा होना तय हैं । इसलिए , राजनीति को हमेशा नकाब के पीछे रहाना पसंद हैं .

सोमवार, 26 जनवरी 2009

वर्जित राजनीती

राजनीती और सत्ता का तालमेल जन्म से रहा हैं .अतीत मे सत्ता की नियंत्रक शक्तिया ,प्रचलित धार्मिकता पर अधारित थी .अत: धार्मिक आचरण ,स्वाभाविक रूप से शासन -शैली पर प्रभावशील हुआ करती थी .भूगोलिक - स्थितियों के अनुरूप , भिन्नता और मतांतर के होने के बाबजूद भी सत्ता और उसके सूत्रों पर धर्म का जबरजस्त असर स्पष्ट परिलिक्षित होता था .समस्याओ और मानवता के कल्याण के लिए , अपने मे अनेको सूत्र पिरोये हुए , धार्मिक ग्रन्थ , सत्ता और राजनीती की दादा और दिशा तय किया करते थे .धर्म के अनेको ग्रंथो मे ,मानव की उत्पति और विकास के संबंध मे अनगिनत ,कथाये हैं , मानव की उत्पति के संबंधित सर्वाधिक प्रतिष्ठित कथा मे से एक --आदम और ईव की हैं .मानव की रचना के बाद ईश्वर ने प्रथम मानव को पहली मनाही ,शैतान के बहकावे मे नही आने और दूसरी ,वर्जित -फल नही खाने के लिए की थी .किंतु आदम और हव्वा ने ईश्वरीय आज्ञा की अनदेखी करके वर्जित -फल खाने का पाप किया और ईश्वर ने अवज्ञा के दंड स्वरूप पृथ्वी पर भेज दिया .इस तरह से मानव के पृथ्वी पर आने की प्रथम कथा --अवज्ञा , पाप और दंड से प्रांरभ होती हैं .इसके पूर्व मानव के प्रसंग से जुड़े दो देवदूत फ़रिश्ता और शैतान , जो नेकी और बदी के प्रतीक माने जाते हैं .मानव की आस्था को तौलने के लिए ,अपनी - अपनी ओर खीचने का प्रयास करते ही रहते हैं और स्वर्ग मे वर्जित फल के मसले मे अधर्म को सफलता मिलाती हैं .और आज तक ,प्रथम मानव के अरबो - खरबों अंश प्रथम मानवो के कथित एक संयुक्त पाप का प्रायश्चित करते हुए स्वंय को स्वर्ग का पात्र सिद्द करने के लिए प्रयासरत हैं .यह दौर कब-तक चलेगा यह तो किसी को भी मालूम नही हैं ? पर इतना जरुर हैं कि , मानव ने अपने समग्र - विकास के क्रम मे जन्म -संस्कार मे मिली , पहली पाप की घूटी को कभी भी और कही भी नही छोडा .और इसी वजह से ईश्वर और उसके सत्य को स्वीकारने के बाबजूद भी ,उसकी अवज्ञा मानव का स्वभाव हैं . इसलिए पृथ्वी पर मानव ---सभ्यता , व्यक्तिगत , सामूहिक , राजनैतिक , समाज और सत्ता क्र हर कर्म मे हर तरफ़ , स्वर्ग मे प्रथम मानव की करनी की झलक साफ -साफ दिखायी देती हैं .जैसे प्रथम मानव के सवर्ग से निष्कासन को उसकी पीढिया भूला नही पायी हैं और अपनी शर्तो पर , वह स्वर्ग की भांति पृथ्वी मे भी स्वर्ग तुल्य सुख लूटना चाहती हैं इसलिए सभी वर्जनाओं को और ईश्वरी प्रकोपों को नजर अंदाज करते हुए वर्जित -फल चखने से बाज़ नही रहा हैं
बिते युगों मे राजा को ईश्वर का दूत माना जाता रहा हैं .उसका हर हुकुम ,ईश्वर के फरमान की तरह सम्मानजनक था . धर्म की चाशनी मे डूबी राजनीति सत्ता को वर्जित फल कने के लिए हमेशा से प्रेरित करती ही रही हैं इसके किस्सों तो इतिहास पता हुआ हैं .और आज के कथित जनतांत्रिक शासक और सत्ता भी अपने अतीत से किसी भी तरह अलग नही हैं .जनतान्त्रिक सत्ता के मुखिया ," राजाओ के राजा " हैं अब इसमे कोई शक नही बचा हैं सत्ता मे शक्ति हैं और सत्ता पाने और उस पर काबिज रहने के लिए राजनीती हैं , और मानव की परख के लिए फ़रिश्ता और शैतान हैं राजनीती मे ईश्वर के प्रियपात्र फरिश्ता औए उसके सबक हमेशा से अमान्य रहे हैं ,एक तरह से अत्यंत अप्रिय और अछूत जैसी सदाचार की वाणी का दर्जा सियासत मे हैं इसके विपरीत शैतानगिरी हर पहलू से हर सत्ता और राजनीति के सूत्रों को स्वीकार्य हैं .तमाम तरह के झूठ दर झूठ और बहकावा शैतान की फितरत हैं और सत्ता की राजनीति आज सच्चा स्वरूप हैं .अपने मतलब निकालने के लिए एक से बढ़कर नायाब नुस्खे ,लोगो को बेवकूफ बनाना , सताना ,- और हैवानियत को इंसानियत का मर्तबा देना और जंग को अमन का वसूल बताना जैसे कदम -कदम पर एक दो नही बल्की हर मुकाम पर आसमान मे तारो की संख्या इतनी मिसाले हैं

आज की राजनीति मे स्वर्ग मे , "वर्जित -सेब " की तरह ईमानदारी - सदाचार -- सेवा -- सत्य - नैतिकता का स्वाद -- चखना मना हैं और ऐसी भूल का का साहस करने वाले के लिए राजनीति की दुनिया से बाहर जाने का रास्ता बतौर राजदंड खुला हैं .